उपनिषद् में लिखा है-'अथ खलु ऋतुमयः पुरुषो यथाऋतुरस्मिंल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य स क्रतुं कुर्वती।' यतः पुरुष क्रतुमय है अर्थात् अध्यवसाय (निश्चयात्मक है) वह इस लोक में जैसा अध्यवसाय अर्थात् निश्चय करता है उस लोक में जाकर वैसे ही होता है। जैसा कि भगवान् ने गीता में भी कहा है कि मानव जिस-जिस वस्तु को स्मरण करते हुए अन्तकाल शरीर को छोड़ता है, मरने पर भी वही-वही हो जाता है
'यं यं वाऽपिस्मरन् भावं त्यज्यत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।'
अतः शास्त्रानुसार क्रतु अर्थात् अध्यवसाय करना चाहिए। सिद्धान्त भी है कि जो जैसी अभिलाषा वाला होता है वैसा ही कर्म करता है, और जैसा कर्म करता है उसी के अनुकूल फल प्राप्त होता है
'स यथाकामो भवति तत्कर्म करुते, यथा कर्म करोति तदेव प्रतिपद्यते।'
इस प्रकार मनुष्य की असफलता अपने अध्यवसाय पर ही निर्भर है। साथ ही श्रद्धा का भी बड़ा महत्त्व है। 'यो यच्छ्रद्धः स एव सः' जिसकी जिसमें श्रद्धा होती है वह वही हो जाता है
आज संसार के बुद्धिमानों के समक्ष एक प्रश्न है कि मानव की उन्नति कहाँ तक हो सकती है ? सनातनधर्मियों के अतिरिक्त जितने भी मतमतान्तर हैं उन सबका उत्तर इस विषय से सब प्रकार से सीमित संकुचित है, क्योंकि वे सब जीवनस्तर को अधिक से अधिक ऊँचा उठाने से ही मनुष्य की उन्नति की पराकाष्ठा मानते हैं। किन्तु सर्वव्यापक सनातन धर्म कहता है कि मानव नर से नारायण बन जाता है। वस्तुतः 'नरयोनि' चौरासी लक्ष योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैइसका कारण यही है कि इसमें नारायण होने की योग्यता है। इस योग्यता के रहते हुए भी अन्य मतमतान्तरों की यह सामर्थ्य नहीं कि वे इसे 'नारायण' बना सकें। इसका दायित्व तो सनातन धर्म ने ही लिया है। सनातन जीव को सनातन नारायण की प्राप्ति कराने की सामर्थ्य सनातन धर्म में होना समुचित ही हैआप लोग भी अपने को सनातन धर्मी ही कहते हैं. फिर ! अनुत्साहित होकर क्यों बैठे हैं ? उठिये, जागिये और श्रेष्ठ पुरुषों की शरण में जाकर जीव ब्रह्म के एक होने का ज्ञान प्राप्त कीजिए'
उत्तिष्ठ' जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत !
राक्षस होकर भी विभीषण परम सत्पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की शरण में गया। उसे आते देख भगवान् सलाहकार सुग्रीव आदि ने श्री राम से कहा 'महाराज ! यह राक्षस है, साथ ही शत्रु का है। अतः पता नहीं किस भाव से आया हो। भगवान विनम्र शब्दों में अपने मन्त्रियों को प्रसन्न रखते हुए कहा- 'आप ने जो कछ कहा सो सब ठीक तथा नीति शास्त्र का गढ सार है। किन्त मेरा दृढ निश्चय है कि एक बार भी जो मेरी में आ गया और मैं आपका हूँ, इस प्रकार याचना करने लगा तो मैं उसे सभी प्रकार से एवं सभी से अभय प्रदान कर हूँ
'सकृदेव प्रपन्नाय तवाऽस्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
(वा० रामायण) इससे आप लोगों को पता लग गया होगा कि भगवान् जीवों पर कितनी दया रखते हैं। फिर भी जीव एक बार भी से भगवान् की शरण न जाकर अनन्त व्याधि दुःख दारिद्रय आदि सन्ताप परम्पराओं से प्रताड़ित होता रहता है। इससे बढ़कर आश्चर्य क्या होगा? भक्तवत्सल राम गये थे भार्यापहारी शत्रु रावण को मारकर प्राणप्रिया सीता का उद्धार करने। इतने में एक जीव विभीषण शरण आ गया तो उनको सीता की सुधि भूल गयी। रावण से निपटा जाय, इसका कुछ भी ध्यान नहीं रहा । लक्ष्मण समुद्र का जल मँगाकर विभीषण को राज्याभिषेक करने लगे। यह है भगवान् की जीवों पर दया। साथ ही उनकी यह भी प्रतिज्ञा है कि राम दो बार नहीं कहते- 'रामो द्विर्नाभिभाषते।' अर्थात् एक बार जो मुँह से निकल गया उसे अवश्य पूरा