-जगद्गुरु स्वामी मधुसूदनाचार्य भगवत्पाद शंकराचार्य ने अपनी कृति षट्पदी में कहा “नारायण करुणामय शरणं अर्थात् हे नारायण आपका स्वभाव, गुण, क्रिया, रूप आदि जो कुछ भी है उसमें करुणा सदैव परिलक्षित होती रहती है। ऐसे करुणामय स्वरूप वाले परमात्मन आपके चरण कमलों संभव है। जब मैं अपने गुणों का परिशीलन करता हूँ उस बेला में यही दिखता है कि मेरे जो यातनायें हैं वे सभी दण्ड विधान मेरे ऊपर लागू होंगे ही जिसका प्रायश्चित्त कर पाना ऐसे में उस विभत्स यातना से बचने का एक उपाय आचार्यों ने शास्त्रीय दृष्टि से बद्धजीवों किया है जिसका आश्रय लेने से अपार भवसागर से बचा जा सकता है। उस मार्ग में ले जाने यामुनाचार्य जी आलवन्दार स्तोत्र में कहते हैं कि प्रभो
“न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके, सहस्रो यन्नमयाव्यधायि। सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्द ! क्रन्दामि संप्रत्यगतिस्तवाग्रे।सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्द ! क्रन्दामि संप्रत्यगतिस्तवाग्रे।।"
अर्थात् मैंने अपने जीवन काल में जितने निन्दनीय आचरण हैं उन आचरणों को तो मैं हजारों बार कर चुका हूँ अब उद्धारार्थ अन्य आश्रय न होने के करण आपकी कृपा का ही आश्रय ले रहा हूँ और भी आगे लिखते हैं“अपराधसहस्र भाजनम्" आप अपराध को क्षमा करने में सिद्धहस्त हैं। पाप ध्वंस हेतु ऐसी प्रसिद्धि है कि भगवान के पवित्र नाम सारे पापों को नष्ट करने में सक्षम हैं यथा
"नाम्नोऽस्ति यावती शक्तिः पाप निर्हरणं हरेः। पापं कर्तुं न शक्नोति, पातकं पातकी जनः।।"
इस उद्धरण से पापाचार में लगा हुआ पापात्मा भी दृढ़ता के साथ आश्वस्त होकर नारायण के पवित्र नामों के उच्चारण मात्र से सारे पापों से परे विशुद्ध अन्तः करण वाला जीव प्रपन्नता (शरणागति) की अनुभूति करता हुआ सोचता है
"मम नाथ यदस्ति योस्म्यहं, सकलंतद्धितवैव माधव। नियतः स्वमिति प्रबुद्ध घीरथवा किं नु समर्पयामि ते।"
(श्रीआलवन्दार स्तोत्र) अर्थात् हे माधव ! सब कुछ तो आपका ही है, मैं हूँ, मेरा है, भविष्य में जो कुछ मेरे पास होगा उन सभी वस्तुओं के स्वामी तो आप ही रहेंगे, मैं तो केवल देखने में ही मूल्यवान हूँ, यथार्थ में मेरा मूल्य जो भी होगा उसकी कीमत बढ़ाने वाले तो आप ही हैं। जिस समय यह धारणा आचार्य की सदिच्छा से जीव के अन्तःकरण में उत्पन्न हो जाती है उसी समय वह कल्मष (पाप) रहित होकर भगवान का प्रिय होकर “अमृतस्य ह वै पुत्राः" हो जाता है। सज्जनों ! सौभाग्य की बात जिन परात्पर परंब्रह्म नारायण का साक्षात्कार/अनुभव करने हेतु समस्त जी लालायित रहते हैं वे प्रभु श्रीरामचन्द्र जी दृश्य जगत में लम्बी अवधि से अपनी ही जन्मभूमि श्री अयोध्या जी में तिरपाल तले रहकर लोगों को दर्शन लाभ दे रहे थे। अब उस स्थल पर विशाल मन्दिर का स्वरूप होने के लिए मा० उच्चतम न्यायालय ने उचित न्याय किया। भगवान से यही कामना है कि प्रभो हम सभी के ऊपर अनुग्रहार्थ आप शीघ्र दिव्य मण्डप में विराजकर “नयन पथगामी भवतु मे" सूक्ति को चरित्रार्थ करें।
जय श्रीमन्नारायण।